साक्षत्कार
sakshatkar by manoj maurya

जश्न के दिन जनाज़े की बात न करिये
मेरे अन्दर दफ्न इंसान आज ही तो जगा है
थोड़ा इसे हवाओं में घुलने दो
चलने दो क्षितिज तक
जहाँ उगते हैं कोमल विचार
क्यों स्वार्थ का ताबूत लिए पिछे पड़े हो
अब तक पानी में फेंकते थें जाल
अब हवाओं में लेकर खड़े हो
कभी तो अपने अन्दर छुपे हुए इंसान से डरिये
जश्न के दिन जनाज़े की बात न करिये |

- मनोज मौर्य

सत्य-असत्य से परे
saty asaty se pare by manoj maurya

ओ दूर सुलगते हुए आग से
जो धुआँ उठ रहा है
उसमें मुझे पूर्वजों
का चेहरा दिखता है
उनके बनते बिगड़ते रूप
मुझको एहसास दिलाते हैं
चिर-पोषित आनन्द का
जो जलने के बाद मिलता है
और आनन्द मिलता है
विलीन हो जाने का
सत्य-असत्य से परे |

- मनोज मौर्य